गरीब
कोई साँझ नहीं,कोई सुबह नहीं
पहन्ने को एक टुकड़ा नहीं
तन ढक तो लूँ पर ढकु तो कैसे
जिस्म है पर आत्मा नहीं
कपकपाती ठण्ड में जलता यह बदन है
आग नहीं, मशाल नहीं
कहने को दो शब्द तो है
पर कमबख्त मुंह में जुबान नहीं
गरीब हूँ में, हाँ में ही एक गरीब हूँ
भूका, नंगा, में ही सदियों से एक मरीज हूँ
कहाँ से लायुं वोह दौलत ? लूटने वाले भी तो अपने ही थे
आज न ही में अजीज हूँ और न किसी के करीब हूँ
खैर क्या फर्क पड़ता है
थोड़ी ही तो सांस बाकि है
न कोई शिकवा है और न ही कोई उदासी है
कौन मरता है तन धक के
थोड़ी सी मिटटी और थोड़ी सी आग ही काफी है